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मेरे घर आना गंदगी

vidushak
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मेरे घर आना गंदगी

मुख्यमंत्री ने विशेष सफाई अभियान चलाने के लिए यूं ही कह क्या दिया, नगर निगम वाले एकाएक शहर और गंदगी पर टूट-से पड़े, गोया कल तक कोई काम ही न हो। पूरे शहर में इस कदर अभियान चल पड़ा है कि क्या मजाल कि किसी कोने-अतरे में छंटाक भर भी कूड़ा मिल जाए। शहर की तो सूरत ही ऐसी बदल डाली कि सुबह दिल्ली नौकरी करने गए लोग शाम को लौटे तो भटक-से गए, लगा कि कहीं गलत मुड़ गए, किसी दूसरे शहर आ गए।

पिछले हफ्ते कूड़ा जमाओ आंदोलन के दौरान शहर आए मेरे एक परिचित बेहद रोमांचित थे। वे एडवेंचरस जर्नी यानी रोमांचक यात्रा में जुनून की हद तक का शौक रखते हैं। किसिम-किसिम के कूड़े के ढेरों से घुसते, हिचकोले खाते, गुजरते, गिरते, पड़ते, बचते, हटते, पिलते, ..ते, ..ते,..ते करते जब वे इस कालमची के दरवाजे पहुंचे तो उनकी शक्ल और हुलिये पर शहर की छाप थी। उन्हें उनका खुद का शहर नीरस और बेरोमांच लगने लगा। उस यात्रा के सुखद अनुभव उन्हें फिर

शहर आने को मजबूर किया लेकिन उनके बुरे दिन थे कि उनका यहां आना कूड़ा हटाओ अभियान के दौरान हुआ। कब शहर में प्रवेश किया और कब घर पहुंच गए, पता ही न चला। बेहद दुखी थे कि क्या से क्या हो गया शहर। अब तो इस सफाचट शहर में आने का मन ही न करेगा, तेरी गलियों में न रखेंगे कदम..।

शहर में विशेष सफाई अभियान क्या चला, कई पहचानें ही साफ हो गईं। कुछ ठिकानों, मकानों और खानदानों की पहचान ही कूड़े के ढेरों से पैबस्त हो गई थी। कूड़े के ढेर और उनके परिवार-व्यवसाय साथ-साथ फले-फूले। मकानों और दुकानों के सामने पड़े विभिन्न आकार और प्रकार के ढेरों से मेहमान या ग्राहक फट से पहचान कर लेते थे, भटकते नहीं थे लेकिन अब सब एक जैसे लगने लगे हैं।  लोगबाग पहले की सामान्य स्थिति में यूं पते बताते थे-फलाने कूड़ाघर के दस कदम आगे बाईं ओर का मकान, ढिकाने कचरे के डिब्बे से दायां मोड़ आदि। अब संकेतक मिटाए जाने से लोगों में आक्रोश है, वे नगर निगम में अर्जी लेकर पहुंचने वाले हैं कि किसी तरह उनके मकानों और दुकानों के आसपास कूड़े के ढेरों की व्यवस्था हो जाए, ताकि उनकी पहचान पर आया संकट मिट सके।

 

पिछले हफ्ते की बात है…..

रोजाना की तरह शहर की एक व्यस्त गली से गुजरना हुआ। रोजाना की तरह ही सड़क किनारे कूड़े के ढेर लगे थे, रोजाना की ही तरह मैंने नाक पर रुमाल रखा तो तभी एक हड़ताली सफाईकर्मी लपक कर आगे आया और चहकते हुए बोला-क्यों फर्क दिख रहा है न, हम आंदोलन कर रहे हैं।

मेरे मुंह से इतना भर निकला-भई, फर्क इतना भर दिख रहा है कि पहले कूड़े का ढेर गोलाकार होता था, आज कुछ आयताकार दिख रहा है, इससे ज्यादा फर्क तो मुझे नजर नहीं आ रहा है। आंदोलनकारियों ने इसे अपने आंदोलन की तौहीन माना और नई रणनीति बनाने की तजवीज करने लगे।

देखा जाए तो सफाईकर्मियों के आंदोलन या हड़ताल जैसे हालात तो शहर में ज्यादातर जगहों पर रोज ही नमूदार होते ही हैं। ज्यादातर लोगों को तो अहसास ही नहीं हुआ कि उनके दरवाजे-गली-मोहल्ले का कूड़ा दरअसल सामान्य न होकर आंदोलनकारी है।

दरअसल यह धोखा स्थितियों में फर्क न पड़ने से ही हुआ। मोहल्ले में तैनात जमादार से जब भी मैं ड्योढ़ी पर झाड़ू मारने को कहता हूं तो वो ऐंठकर पलटवार करता है-क्यों दीवाली पर त्योहारी कितनी दी थी? मेरे पास कोई जवाब नहीं होता है और मैं हड़ताल या आंदोलन जैसी स्थिति को अक्सर सहज ही स्वीकार कर लेता हूं।

दरअसल शहर में सफाई को लेकर हड़ताली और गैर हड़ताली स्थितियों में अब ज्यादा फर्क ही नहीं रहता है। पब्लिक पहचान ही नहीं पाती है कि फलाने विभाग के कर्मचारी हड़ताल पर हैं या काम पर। सब कुछ नार्मल ही लगता है। सफाई न तब होती है और न हड़ताल के दौरान। फर्क पैदा करने के लिए ये जरूरी था कि सड़कों पर और कूड़ा डाला जाए। अब भी अगर मांगें नहीं मानी जाएं तो आंदोलनकारियों को डीएम, कमिश्नर, मेयर, नगर आयुक्त के घरों में कूड़ा डालना चाहिए। इससे वे जनता का भी समर्थन हासिल कर सकेंगे। तभी पब्लिक भी मानेगी कि हां भई फर्क तो पड़ा है।

पता चला है कि किसी अनुभवी हड़ताली ने इन नव हड़तालियों को नुस्खा सुझाया था कि आप हफ्ते भर से हड़ताल पर हैं, लेकिन अफसर तो अफसर, जनता तक आपको नोटिस नहीं ले रही है, क्योंकि स्थितियों पर कोई फर्क ही नहीं पड़ा है।

स्वच्छ और स्वस्थ विरोध प्रदर्शन की छूट देने वाले लोकतंत्र के लिए यह बेहद खतरनाक संकेत है। हड़ताल जैसा कुछ लगे, इसके लिए जरूरी है कि कुछ गैर परंपरागत तरीके अपनाए जाएं। आंदोलनकारियों को चाहिए कि हड़ताल के दिनों में न सिर्फ जगह-जगह से कूड़ा उठाकर प्रमुख जगहों पर कूड़े के कुतुबमीनार लगाएं, बल्कि जनता को भी जागरूक करें। हड़ताल चेतना र्कायक्रम चलाएं, जगह-जगह दो फोटो भी लगाएं-एक पर लिखा हो हड़ताली कूड़ा और दूसरे पर नान हड़ताली कूड़ा। शायद ये सलाह हड़तालियों को जंच गई। नतीजा सामने है।

सुलभ सुविधा:

संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रकाशित रिपोर्ट में चिंता जताई गई है कि भारत में शौचालय से ज्यादा मोबाइल हो गए हैं। हमारे सफाईकर्मियों ने इसे संज्ञान लेते हुए शहर भर में कूड़े के ढेर लगाते हुए शौचालय की सुविधा सुलभ करा दी है। अब मल या मूत्र विसर्जन के लिए दाएं-बाएं देखने की जरूरत नहीं।

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