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उनके आने से बहार है….और जाने में गुबार ही गुबार है। वे धूल-धुआं उड़ाते आती हैं और अपने पीछे छोड़ जाती हैं धूल-धूसरित कुछ ऐसे मलिन अफसरी चेहरे जिन्हें साफ करने को कोई रूमाल आगे नहीं बढ़ाता। इन चेहरों की उनकी जूती जैसी किस्मत कहां। उनसे किसी को हमदर्दी नहीं होती। जो कभी सिर-माथे रहते हैं, वे धूल में मिल जाते हैं। उन्होंने नीतिशास्त्र में दौरों का प्रवर्तन किया है, नया अध्याय जोड़ा है, नई इबारत लिखी है।
उनकी जूती पर जमाना है और उस पर लगी धूल का तिलक करने को लोग धूल में लोट तक लगा देते हैं। उनके पदचिन्ह पर चलने को पार्टीजन बेताब रहते हैं। राजनीति में वे सामाजिक क्रांतिकारी हैं और बदलाव विरोधी मनुवादी उनकी जान के दुश्मन हैं। उनकी क्रांति से केंद्र सरकार खुद को असुरक्षित महसूस कर रही है, इसीलिए उन्हें जेड प्लस सुरक्षा देने में केंद्र एक्स.. वाई.. जेड.. दलीलें देकर आनाकानी करता रहता है। लेकिन शुक्र है कि उनके सुरक्षा अधिकारी इस कदर सजग और चौकन्ने हैं कि जूती की धूल से उनकी जान को खतरा पैदा होने की कोशिशों का सफाया कर देते हैं।
जूतों का कोई जोड़ नहीं। शादी से लेकर बर्बादी तक जूतों का जुड़ाव है। हालांकि राजनीति में इनका एक और प्रयोग देखने में आ रहा है। इन दिनों देश-दुनिया की राजनीति में जूते खूब चल और बज रहे हैं।
ऊपरवाले की लाठी में भले ही आवाज न होती हो लेकिन नेता पर पडऩे वाले जूते की आवाज दूर तलक जाती है। तलवे चाटकर मलाई मारने की राजनीति में बड़ी पुरानी विधा है और चरण चिन्ह पर चलने के साथ ही चरणपादुका लेकर चलने वालों के भी सियासत में किस्से तमाम हैं। कुछ भी हो, देश-दुनिया की शुष्क राजनीति में इन दिनों जूते-जूती रोमांच पैदा कर रहे हैं। अभी तक नेता जनता की गालियां खाते थे, अब उन्हें जनता के जूते भी खाने पड़ रहे हैं।
तुझको चलना होगा….
कितना अच्छा हो कि हाकिम मोबाइल हो जाए, वैसे अपने नेताओं का मूवमेंट अपने देश की तरफ कम और विदेशों की तरफ ज्यादा होता है। बहन जी बस यूं ही घूमती रहें तो समूचा प्रदेश चमक जाए। चलती-फिरती सरकार। सारे बिगड़े काम फटाफट बनते जाएं। अब सूबे की हालत ऐसी हो गई है कि उनके चलने से ही काम चलेगा, बैठीं तो भट्ठा बैठा। विपक्षी कहते हैं कि कहीं अगला चुनाव बैठ न जाए, इस आशंका में उन्होंने चलना शुरू किया है। वजह जो भी हो, सरकार चलायमान है, अफसर ठिठके हैं तो जनता आशावान।
बहन जी चलती हैं तो सरकार चलती है, वे स्थिर होती हैं तो सब कुछ स्थिर हो जाता है और अफसर भी अपनी पोस्टिंग को स्थायी-स्थिर समझ बैठते हैं। उनके दौरों से अफसरों को दौरे पडऩे लगते हैं। इसीलिए तो अपने सूबे का बहुजन इन दिनों झूम-झूमकर गा रहा है कि आने से उनके आए बहार…जाने से उनके जाए बहार…
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