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सडक़ पर लोकतंत्र और लोकतांत्रिक सडक़ें

vidushak
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वे वजनदार मंत्री हैं, वजन उनका तो खैर जो है, है ही, उनके पास एक से एक वजनदार महकमे हैं। इनमें एक महकमा सडक़ बनाने वालों का भी है। वे मानते हैं कि विकास का रास्ता सडक़ों से होकर ही गुजरता है, लिहाजा वे सडक़ों की काफी चिंता करते हैं। इस हद तक कि लोग उन्हें सडक़छाप मंत्री कहने लगे हैं, लेकिन कहते रहें, उनकी बला से। वे सडक़ से सदन तक पहुंचे हैं। वे जहां कहीं दौरा करने जाते, सडक़ें उनकी नजर में रहती है। उनके काफिले में फावड़ा-कुदालशुदा लोग बाकायदा शामिल रहते हैं। भौतिक सत्यापन अभियान के तहत वे जहां कहीं इशारा करते हैं, गुणवत्ता की परख के लिए सडक़ में गड्ढा कर दिया जाता है। बस सडक़ की पोल खुल जाती है और साथ ही साथ संबंधित महकमे की भी। और इस तरह सडक़ के पुनर्जन्म का परोक्ष रूप से शिलान्यास भी हो जाता है। फिर यह उस सडक़ का राजधर्म हो जाता है कि जहां उसमें मंत्री जी ने गड्ढा किया है, वहां से वह टूटना शुरू करे।
सडक़ों का अलग शास्त्र है। कभी वे डामर-रोड़ी से बना करती थीं। अब ये कमीशन से बनती हैं। सडक़ के बनने के वक्त ही यह तय हो जाता है कि इसे कितना चलना-चलाना है, एक बारिश, दो बारिश या….। आधुनिक सडक़ों के निर्माण में भ्रष्टाचार का मैटीरियल सबसे प्रमुखता से मिलाया जाने लगा है।

तेरे बाप की सडक़ है
हम सूबे के लोग अब इस चिंता से मुक्त हो चुके हैं कि सडक़ों की चिंता करने वाला कोई तो है, वरना आलम यह है कि अगर कोई सडक़ों की हालत पर चिंता करे तो लोग पूछ बैठते हैं कि क्या सडक़ तुम्हारे बाप की है।
वैसे सडक़ों के साथ हमारा सलूक कुछ ऐसा ही है मानों सडक़ें हमारे बाप की ही हों। उनकी स्थिति गरीब की लुगाई की माफिक है। हम शादी-बारात, मुंडन-कनछेदन कभी भी सडक़ को तंबू-कनात से घेरकर, कहीं से भी छेदकर उस पर कब्जा कर सकते हैं। सडक़ों की आजादी की कहीं से भी मांग नहीं उठेगी, लोग रास्ता बदलकर निकल जाएंगे। जनहित में सबसे ज्यादा सडक़ें ही काम आती हैं। आप सामने की सडक़ को अपने मकान-दुकान की ड्योढ़ी तक बना सकते हैं। सडक़ों में वाकई अद्भुत सहनशक्ति होती है।
सडक़ें अगर जल्द टूटें नहीं तो उससे बड़े नुकसान हैं। जांच होती है, फाइल बनती है, टेंडर निकलता है, ठेका दिया जाता है, साइट पर जाकर निरीक्षण किया जाता है, कमीशन तय होता है, आदि आदि। ये सब न हो तो इससे संबंधित महकमे के कर्मचारी और अधिकारी बैठे-बैठे निठल्ले हो जाएंगे। मोटी-मोटी तनख्वाह मिलती है। कुछ काम तो उन्हें करना ही चाहिए।
सडक़ें हमें पक्की तौर पर अहसास कराती हैं कि हम स्वतंत्र हैं और हमे लोकतंत्र नसीब है। क्योंकि ये किसी भी तरह के लेन के बंधन से मुक्त है। आप जहां चाहे गाड़ी चला सकते हैं, जहां चाहे गाड़ी घुसा सकते हैं, और जहां चाहे गाड़ी चढ़ा भी सकते हैं। कोई हार्न पर हार्न बजाता रहे, कतई साइड मत दीजिये। रेड लाइट हो तो आपकी बला से।
सडक़ें लोकतंत्र की पहली सुविधा हैं। जब तक सडक़ें हैं, लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं पैदा हो सकता है। लोकतंत्र सडक़ों से जिंदा है और रहेगा।

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